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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022: वैश्य दलित मुसलमान को भूल सब ब्राहमणों के पीछे क्यों भाग रहे हैं


एक समय था जब राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव के दौरान महंगाई गरीबी और जनसमस्याओं को मुददा बनाकर वोट मांगे जाते थे लेकिन पिछले कुछ दशक से लगभग सभी राजनीतिक दल चाहे वो केंद्रीय हो या प्रदेशीय या क्षेत्रीय उनके द्वारा जातीय समीकरण साधने के लिए जातिगत आधार पर वोट प्राप्त करने की रणनीति तैयार की जाने लगी है।



वैसे तो आजादी के बाद से ही जितना कुछ नजर आता है कम या ज्यादा क्षेत्रीय संतुलन और जातीय आधार पर मतों की संख्या को ध्यान में रखकर उम्मीदवारों को चुनाव लड़ाए जाते थे। एक समय था जब कांग्रेस दलित, मुस्लिम और ब्राहमण मतदाताओं के दम पर देशभर में राज करती थी।


इमरजेंसी के उपरांत जब जनता पार्टी का गठन हुआ और जयप्रकाश नारायणा के नेतृत्व में चुनाव जीतकर उसके नेताओं ने सरकार बनाई उसके बाद से अन्य दलों के नेताओं को यह पता चल गया कि अगर वो अपने सजातीय मत एकजुट कर ले तो अपना परचम भी लहरा सकते हैं। और क्योंकि इस दौरान तमाम दल और उनके नेता सत्ता सुख भोग चुके थे इसलिए छोटे दलों ने तालमेल बैठाकर और फिर दूसरी राष्ट्रीय पार्टी कहे जाने वाली पार्टी भाजपा ने इनका सहयोग लेकर धीरे धीरे सरकार बनानी शुरू की।


 परिणाम स्वरूप कांग्रेस पिछड़ती गई भाजपा और क्षेत्रीय दल उभरते गए। फिर नरेंद्र मोदी का दौर आया और बसपा सपा रालोद कांग्रेस मुस्लिम मतों का राग अलापती रही और भाजपा ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में धुंआधार प्रचार से एक ऐसा माहौल बनाया कि बहुसंख्यकों को यह लगा कि अगर संगठित नहीं हुए तो हर क्षेत्र में पिछड़ जाएंगे। परिणामस्वरूप 2014 में भाजपा पूर्ण बहुमत से चुनाव जीती और केंद्र में नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में सरकार बनी। तब से देश के अनेक राज्यों में साम दाम दंड भेद की नीति के चलते भाजपा की सरकारें चल रही हैं। और विपक्ष कांग्रेस को छोड़कर कहीं भी अपने अकेले दम पर सरकार नहीं बना पा रहा है और यूपी में तो एक समय में राजनीति में सबसे मजबूत समझे जाने वाले कांग्रेस बसपा और सपा का 2017 में कोई बड़ा करिश्मा नजर नहीं आया । अब 2022 में होने वाले विधानसभा चुनावों में इस बार मुस्लिम दलित का नहीं ब्राहमणों के दम पर चुनाव लड़ने और जीतने का मिशन लगभग सारी पार्टियां चला रहीं हैं।



जब 64 प्रतिशत ब्राहमण साथ हैं तो भाजपा....
उत्तर प्रदेश में हर तरह से मजबूत पूर्व प्रदेश भाजपा अध्यक्ष डाॅ. लक्ष्मीकांत वाजपेयी और डिप्टी सीएम दिनेश शर्मा व कलराज मिश्रा और अन्य बड़े नेता ब्राहमण होने के बावजूद पूर्व केंद्रीय मंत्री जितिन प्रसाद को कांग्रेस से भाजपा में लाकर उनके गुणगान किए जा रहे हैं। इतना ही नहीं। एक न्यूज एजेंसी आईएएनएस के द्वारा स्वतंत्र एजेंसी मेटराइज न्यूज से प्रदेश भर में ब्राहमण वोटों को लेकर सर्वे कराया गया। न्यूज एजेंसी ने दावा किया कि यूपी में 64 प्रतिशत ब्राहमण भाजपा के साथ हैं। सवाल यह उठता है कि जब इतना बड़ा ब्राहमण समूह भाजपा के साथ है तो भाजपा फिर अपनों को नजरअंदाज कर इन्हें जोड़ने के लिए इतने प्रयास क्यों कर रही है।



13 प्रतिशत ब्राहमण और 23 प्रतिशत दलित
दूसरी तरफ बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती जी द्वारा अपने राष्ट्रीय महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा को आगे बढ़ाकर ब्राहमण वोट अपने साथ जोड़ने के लिए प्रबुद्ध सम्मलेन शुरू किए गए है। और इसका शुभारंभ अयोध्या नगरी से किया गया। मायावती जी का कहना है कि बसपा के ब्राहमण सम्मेलनों से अन्य विपक्षी दलों की नींद उड़ गई है। हो सकता है कि उनकी बात सही हो



सपा ने 2012 में 42 ब्राहमणों को दिया टिकट
अब बात करें अखिलेश यादव की तो 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा ने 42 ब्राहमणों को टिकट दिए जिनमें से 23 जीते माता प्रसाद पाण्डेय विधानसभा अध्यक्ष और दो कैबिनेट मंत्री बनाए गए थे। अब सपा 23 अगस्त को महान स्वतंत्रता सेनानी मंगल पांडे की जन्मभूमि बलिया से अपने प्रबुद्ध सम्मेलन शुरू करने जा रही है। 24 अगस्त को मउ तथा 25 अगस्त को औरेया में इसके सम्मलेन होंगे। ब्राहमणों को जोड़ने के लिए अखिलेश यादव ने माता प्रसाद पांडे के नेतृत्व में एक पांच सदस्यीय कमेटी गठित की है जिसमें पूर्व कैबिनेट मंत्री मनोज पांडे मंत्री अभिषेक मिश्रा पूर्व विधायक सनातन पांडे और संतोष पांडे को शामिल किया गया है। अखिलेश यादव को एनसीपी प्रमुख शरद पवार और रालोद के राष्ट्रीय अध्यक्ष जयंत चैधरी का भरपूर सहयोग चुनाव में मिलने की उम्मीद है। इसलिए ब्राहमण मतदाताओं को आकर्षित करने में वो कमजोर रहेंगे ऐसा भी नहीं कहा जा सकता।


नौटंकी है प्रबुद्ध सम्मेलन
दिल्ली में सरकार चला रही आम आदमी पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष सभाजीत सिंह का कहना है कि अयोध्या में हुआ बसपा का ब्राहमण सम्मेलन नौटंकी से ज्यादा कुछ नहीं है और ब्राहमण सम्मेलन एक धोखा है। इनका कहना है कि जब नृपेंद्र मिश्र की हत्या हुई तो इन्हें ब्राहमणों की चिंता क्यों नहीं हुई।


2022 में होगा ब्राहमणों का जलवा
कुल मिलाकर जो स्थिति चल रही है अगर ऐसा ही रहा तो 2022 का यूपी विधानसभा का चुनाव ब्राहमण मतदाता के दम पर लड़ने की सभी कोशिश करेंगे। सफलता किसे मिलती है वो एक अलग बात है लेकिन फिलहाल पिछले साल तक ब्राहमणों का चर्चा भी न करने वाले राजनीतिक दलों के लिए उनके उत्साह को देखते हुए यह लगता है कि जीत की चाबी समझकर हर कोई इन्हीं के पीछे भागकर चुनाव लड़ने की कोशिश में लगा है। किसी को भी जहां तक दिखाई दे रहा है दलित, वैश्य मुस्लिम और अन्य जातियों के मतदाताओं की शायद कोई चिंता नजर नहीं आ रही है। स्थिति जो दिखाई दे रही है उससे यह लग रहा है कि हर कोई सोच रहा है कि ब्राहमण नाम की लूट है लूट सके तो लूट। इसके चक्कर मंें कई अपराधियों को महिमामंडित करने में भी हमारे कर्णधार किसी भी रूप में पीछे नहीं रहना चाहते। जो भी हो एक बात तो कही ही जा सकती है कि वोट किसे देंगे और किसे नहीं वो बाद की बात है लेकिन फिलहाल यूपी विधानसभा चुनाव में ब्राहमणों का जलवा नजर आएगा। और कपड़ों की तरह दल बदलने वाले कुछ नेता भी अपना भविष्य सुधारने में सफल हो सकते हैं।

– रवि कुमार विश्नोई
सम्पादक – दैनिक केसर खुशबू टाईम्स
अध्यक्ष – ऑल इंडिया न्यूज पेपर्स एसोसिएशन
आईना, सोशल मीडिया एसोसिएशन (एसएमए)
MD – www.tazzakhabar.com

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